Land Dispute: बहन ने भाई के नाम कर दी सारी प्रॉपर्टी, जब चीफ जस्टिस को हुआ शक तो खुला पूरा राज
उपन्यासकार विक्रम सेठ (Vikram Seth) की मां लीला सेठ (Justice Leila Seth) हाईकोर्ट का चीफ जस्टिस बनने वाली पहली महिला जज थीं. पहले वह दिल्ली हाईकोर्ट में बतौर जज नियुक्त हुईं और फिर कार्यवाहक चीफ जस्टिस बनीं.
फिर बतौर चीफ जस्टिस उनका तबादला हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट हो गया. जहां करीब 15 महीने रहीं. लीला सेठ ने पेंगुइन से प्रकाशित अपनी आत्मकथा ‘घर और अदालत’ में अपने कोर्ट के दिनों के तमाम किस्से बयान किये हैं.
बहन ने भाई के नाम कर दी सारी प्रॉपर्टी
एक किस्सा तब का है, जब वह दिल्ली हाई कोर्ट में जज थीं. सेठ लिखती हैं कि एक दिन मुझे तीन बहनों के हलफ़नामे मिले, जिसमें उन्होंने अपनी सारी संपत्ति अपने दो भाइयों के नाम छोड़ने की बात कही थी. यह देखकर मैं स्तब्ध रह गई.
हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 को बने क़रीब 30 साल हो चुके थे. मैंने यह जानने के लिए कि इसमें किसी तरह की धोखाधड़ी तो नहीं हो रही है और जांच कर पता लगाने के लिए कि लड़कियां क्यों अधिकार छोड़ रही हैं, मैंने उन्हें कोर्ट आने को कहा.
कोर्ट आने को तैयार नहीं था भाई
सेठ लिखती हैं कि उन लड़कियों का भाई कोर्ट आने को तैयार नहीं थे. कभी दूरी का हवाला देते और कभी खर्च का. पर काफी विरोध जताने के बाद भाई उन्हें कोर्ट में लाने के लिए तैयार हुए. मैंने उन युवा लड़कियों को अपने चेंबर में बुलवाया.
उनसे पूछा कि क्या वे अपने क़ानूनी अधिकार से परिचित हैं तो उन्होंने हां में सिर हिलाया. फिर मैंने कहा कि उन्होंने अपनी पैतृक संपत्ति में हिस्सा न लेकर काग़ज़ात पर ऐसे ही दस्तख़त क्यों कर दिए.
उन्होंने जवाब दिया कि वे भाइयों से रिश्ते ख़राब नहीं करना चाहतीं. पिता की मृत्यु के बाद उनके भाइयों का घर ही वह जगह है जहां वे मिलने-जुलने या कोई मुसीबत पड़ने पर जा सकती हैं. अगर वह हिस्से की मांग करेंगी तो इससे उनके संबंधों पर असर पड़ेगा.
लीला सेठ लिखती हैं कि मैंने उन तीनों लड़कियों को इस बात पर राजी करने की भरसक कोशिश की कि वे हलफ़नामा वापस ले लें, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. मैं कई दिन इस घटना के बारे में सोचती रही.
जब महिला ने दों जजों को समझ लिया पति-पत्नी
लीला सेठ अपनी आत्मकथा में एक और किस्से का जिक्र करती हैं. वह लिखती हैं कि एक बार मैं और जस्टिस सच्चर एक साथ बैठकर क्रिमिनल अपीलों पर सुनवाई कर रहे थे. इस दौरान हमारे सामने एक मर्डर केस आया, जिसमें एक युवा अभियुक्त को आजीवन कारावास की सजा हुई थी. मामले की सुनवाई के बाद हमारी राय थी कि उसे दोषी क़रार देने के लिए पर्याप्त साक्ष्य नहीं हैं. आख़िरकार हमने उसके खिलाफ़ अभियोग और सजा को ख़ारिज कर दिया.
अभियुक्त ग्रामीण पृष्ठभूमि का था. मुकदमे की सुनवाई के दौरान गांव से उसकी मां भी कोर्ट आई थीं. सेठ लिखती हैं कि जब हमने अपना फ़ैसला सुनाया और उसकी रिहाई का आदेश जारी किया, उसकी मां खुशी से उछल पड़ीं. उन्होंने बिना कुछ जाने-समझे ही, अपने दोनों हाथ उठाकर खंडपीठ में बैठे हम दोनों जजों को खुले दिल से ज़ोर-ज़ोर आशीर्वाद देना शुरू कर दिया. यहां तक कि एक दंपती के रूप में ‘हमारी जोड़ी हमेशा सलामत रहने की दुआएं दीं.’
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सेठ लिखती हैं कि उस महिला की बात सुनकर हम दोनों ही स्तब्ध रह गए और सोच में पड़ गए कि आखिर हमारे जीवनसाथी इस बारे में क्या सोचेंगे!